आदिवासी स्वाभिमान और स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक: Birsa Munda

0
66
Birsa Munda

बिरसा मुंडा जयंती हर वर्ष 15 नवंबर को मनाई जाती है। यह दिन उस महान क्रांतिकारी और जननायक को समर्पित है, जिन्होंने न केवल अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष किया, बल्कि आदिवासी समाज में चेतना की नई रोशनी भी जगाई।

जीवन परिचय

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के उलीहातू गांव में एक मुंडा जनजाति के परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही तेजस्वी, जिज्ञासु और न्यायप्रिय थे। ब्रिटिश शासन और जमींदारी प्रथा से आदिवासियों की पीड़ा ने उनके मन में विद्रोह की आग जलाई।

बिरसा का आंदोलन

बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज के हक, जमीन और संस्कृति की रक्षा के लिए संगठित आंदोलन चलाया। उन्होंने “अबुआ राज सेतर जाना, महारानी राज टुंडु जाना” (हमारा राज कायम होगा, रानी का राज खत्म होगा) जैसे नारों से आदिवासियों में आत्मबल भर दिया। उनका आंदोलन “उलगुलान” (महाविद्रोह) के नाम से जाना गया, जो एक शक्तिशाली जनआंदोलन बन गया। उन्होंने अपने अनुयायियों को संगठित कर ब्रिटिश सत्ता और जमींदारों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया।

धार्मिक और सामाजिक सुधारक

बिरसा मुंडा केवल एक क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि एक धार्मिक और सामाजिक सुधारक भी थे। उन्होंने आदिवासियों को अंधविश्वास, शराबखोरी और कुप्रथाओं से दूर रहने की प्रेरणा दी। वे ईश्वर में विश्वास रखते थे और उन्होंने ‘बिरसाइत धर्म’ की नींव रखी, जो आदिवासी संस्कृति की रक्षा करता था।

Tribal Leader Birsa Munda

बलिदान और विरासत

बिरसा मुंडा को अंग्रेज सरकार ने 1899 में गिरफ्तार किया और 9 जून 1900 को रांची जेल में उनका निधन हो गया। मात्र 25 वर्ष की उम्र में उन्होंने जो योगदान दिया, वह भारतीय इतिहास में अमर हो गया। आज उनके नाम पर कई संस्थान, विश्वविद्यालय, रेलवे स्टेशन, और योजनाएं चलाई जा रही हैं। उन्हें ‘धरती आबा’ यानी “धरती के पिता” के रूप में आदिवासी समाज पूजता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here