बिहार का मौजूदा विधानसभा चुनाव कई दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर साफ़-साफ़ बहुमत की ओर बढ़ती नजर आ रही है। भले ही कुछ समय तक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे, लेकिन घटनाक्रम यह इशारा करता है कि बिहार में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का भाजपा का वर्षों पुराना लक्ष्य अब लगभग हकीकत बनने वाला है। हिंदी पट्टी में तमाम राज्यों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के बाद बिहार ही वह अकेला राज्य रह गया था जहां पार्टी अभी तक स्वतंत्र तौर पर सत्ता स्थापित नहीं कर सकी थी। अब यह अंतिम बाधा भी टूटती हुई दिखाई दे रही है।
राजनीति का वैचारिक इतिहास
बिहार की राजनीति का वैचारिक इतिहास गांधी, लोहिया और जयप्रकाश नारायण की परंपराओं से प्रभावित रहा है। यह परंपरा लंबे समय तक हिंदुत्व आधारित राजनीति को राज्य में मजबूत होने से रोकती रही। भाजपा आज भी यहां गठबंधन और आयातित चेहरों की मजबूरी के साथ आगे बढ़ती है, लेकिन इस चुनाव ने पहली बार उसे सत्ता के बेहद करीब ला खड़ा किया है।
लालू युग के अंत का संकेत
इस चुनाव ने साफ कर दिया कि लालू यादव का प्रभाव लगभग समाप्त हो चुका है। दिलचस्प रूप से राजनीतिक चर्चाओं में तेजस्वी से ज्यादा लालू यादव का नाम गूंजा, क्योंकि तेजस्वी का स्वतंत्र राजनीतिक कद अब भी उभर नहीं पाया है। लालू यादव का राजनीतिक पतन 2010 में ही दिखाई देने लगा था जब उनकी पार्टी केवल 22 सीटों पर सिमट गई थी। 90 के दशक में मंडल राजनीति और राष्ट्रीय मुद्दों ने उन्हें मोठा नेता बनाया, लेकिन वे इसे सामाजिक परिवर्तन या नई राजनीतिक पीढ़ी के निर्माण में बदल नहीं सके। परिवारवाद में सीमित राजनीति ने उनके प्रभाव को कमजोर कर दिया।
नीतीश कुमार: स्थिरता और विरोधाभासों का मिश्रण
नीतीश कुमार की राजनीति जोखिम से बचने और उलटफेर के विरोधाभासों से भरी रही है। उन्होंने बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति को कमजोर वर्गों और महिलाओं तक पहुँचाया और कई सामाजिक बदलाव किए। फिर भी राजनीतिक अस्थिरता—लालू से गठबंधन, अलगाव और पुनर्गठबन्धन—ने उनकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुँचाया। इसके बावजूद उनकी पार्टी का 43 से बढ़कर 85 सीटों तक पहुँचना यह साबित करता है कि वे अब भी सबसे प्रभावशाली नेता हैं।
भविष्य की राजनीति: भाजपा का विस्तार
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि नीतीश के बाद उनका राजनीतिक आधार किस ओर जाएगा। उनका कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं है। लालू के खेमे में उनके समर्थकों के जाने की संभावना कम है। ऐसे में भाजपा उनके सामाजिक आधार को अपने पक्ष में मोड़ सकती है। यही कारण है कि भाजपा नीतीश को सत्ता में बनाए रखने में धैर्य दिखा रही है। बिहार इस समय परिवर्तन के बड़े मोड़ पर खड़ा है—लालू युग समाप्त, नीतीश युग ढलान पर, और भाजपा के उभार का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि बिहार की राजनीतिक संस्कृति में गहरे बदलाव का संकेत है।


