बिहार में चुनावी बिगुल बजने का इंतजार जारी है, लेकिन तारीख़ों से पहले ही राजनीतिक पारा उबाल पर है। इस हफ्ते सूबे की राजनीति में कई बड़े घटनाक्रम सामने आए। एक ओर लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव ने नई पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया, तो दूसरी ओर लालू परिवार में सियासी खींचतान ने सुर्खियां बटोरीं। वहीं, सत्ता पक्ष की ओर से 75 लाख महिलाओं को 10 हजार रुपये रोजगार सहायता देने की घोषणा भी चर्चा में रही। इन्हीं मुद्दों पर खबरों के खिलाड़ी कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह, समीर चौगांवकर, विजय त्रिवेदी, अनुराग वर्मा और अवधेश कुमार ने अपनी राय रखी।
लालू परिवार की रार का असर कितना?
वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह का मानना है कि लालू परिवार की खींचतान चुनावी नतीजों पर बड़ा असर नहीं डालेगी। उन्होंने कहा– “जिस बेटे के सिर पर पिता का हाथ होता है, जनता उसी को नेता मानती है। आज तेजस्वी यादव हैं तो जनता उनके साथ खड़ी है।” उन्होंने आगे कहा कि तेज प्रताप या रोहिणी की नाराजगी से थोड़ा बहुत असर ज़रूर होगा, लेकिन बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा।
मुस्लिम वोट और ओवैसी की चुनौती
समीर चौगांवकर ने कहा कि मुस्लिम वोटर अभी भी महागठबंधन के साथ खड़ा दिख रहा है। “ओवैसी का असर वहां होगा जहां मुकाबला बेहद करीबी है। पिछली बार 15 सीटों पर राजद 5000 से भी कम वोटों से जीती थी। तेज प्रताप यादव का नया बयान – जिन्हें राजद धुत्कारेगा, हम पुचकारेंगे – इन सीटों पर डेंट डाल सकता है।”
गठबंधन और सीट शेयरिंग पर सहमति
विजय त्रिवेदी का मानना है कि दोनों बड़े गठबंधनों (एनडीए और महागठबंधन) में सीटों पर मोटे तौर पर सहमति बन चुकी है। उन्होंने कहा–
“आमतौर पर 10-12 सीटों पर आखिरी समय तक चर्चा चलती है। इस बार भी वही होगा। लेकिन मुकाबला सीधा इन दोनों गठबंधनों में होगा। ओवैसी का इस बार बड़ा असर नहीं दिख रहा, क्योंकि अल्पसंख्यक वोट कांग्रेस और राजद की तरफ झुका हुआ है।”
प्रशांत किशोर का फैक्टर
अनुराग वर्मा ने कहा कि इस चुनाव में जातीय समीकरण हमेशा की तरह अहम रहेंगे। हालांकि प्रशांत किशोर की मेहनत और उनके कैंपेन का असर भी दिख सकता है।
“लेकिन सबसे अहम यह है कि पीके जिस वोट पर असर डाल रहे हैं, वह एनडीए का है। अगर एनडीए यह नहीं समझा पाया कि अगड़े वोट कटे तो फायदा सीधे तेजस्वी यादव को होगा, तो मुश्किलें बढ़ेंगी।”
चुनाव तय करेगा बिहार की राजनीति की दिशा
अवधेश कुमार ने बिहार की राजनीति को ऐतिहासिक संदर्भ में समझाया। उन्होंने कहा–
“1990 के बाद बिहार की राजनीति एक दौर से गुज़री, जिसका अंत 2005 में हुआ। उसके बाद नीतीश कुमार के फैसलों ने अनिश्चितता का दौर लाया। राजद, जिसे जनता ने लगातार पाँच चुनावों तक हराया और 22 सीटों पर सिमटा दिया, वह फिर मजबूत होकर लौटी।” उनके मुताबिक यह चुनाव सिर्फ सरकार बदलने का नहीं, बल्कि बिहार की राजनीतिक दिशा तय करने वाला साबित हो सकता है।
किसके हक़ में जाएगा बिहार?
बिहार चुनाव भले ही अभी औपचारिक तौर पर घोषित न हुए हों, लेकिन सियासी बयानबाज़ी और गठबंधन की रणनीतियों ने माहौल गरमा दिया है। लालू परिवार की आंतरिक कलह, ओवैसी की सीमांचल में दावेदारी, प्रशांत किशोर की एंट्री और जातीय समीकरण – सब मिलकर इस चुनाव को और दिलचस्प बना रहे हैं। विश्लेषकों की मानें तो मुकाबला अभी भी एनडीए बनाम महागठबंधन के बीच ही रहेगा, लेकिन छोटे फैक्टर कई सीटों का खेल पलट सकते हैं।