वो चलते थे तो रास्ता अपने आप बनता था, उठते थे तो कुर्सियाँ सीधी हो जाती थीं और बोलते कम थे लेकिन जब बोलते तो सामने वाला बोलना भूल जाता था, पुलिस की फाइलों में गैंग लीडर, जनता की नज़रों में नेता और अपनों के बीच मालिक। छोटे कद के थे, लेकिन नज़रें इतनी पैनी कि सामने वाला झुककर बात करे।
साल था 1985 मार्च का महीना था तब उत्तर प्रदेश में विधान सभा के चुनाव थे प्रदेश के कुल 425 विधानसभा सीटों में से गोरखपुर की एक सीट चिल्लुपार पर पूरे प्रदेश की नज़रे टिकी हुई थी क्यूँकी वहाँ से एक ऐसा शख्स चुनाव लड़ रहा था जो जेल में बंद था जिसपे केडनैपिंग हत्या साज़िश लूट और रंगदारी जैसे कई गंभीर मुकदमें दर्ज थे वो 1984 में महाराजगंज से लोकसभा चुनाव लड़ कर हार चुका था और राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत जेल में बंद था जब नतीजे आए तो पता चला की गोरखपुर में उस शख्स ने congress के कद्दावर उम्मीदवार मार्कंडेय चंद को क़रीब 22 हज़ार वोटों से मात दे दी।
उस सख्श का नाम था हरिशंकर तिवारी जिसके लिए उत्तर प्रदेश में माफिया जैसे शब्द का इस्तेमाल किया गया था जिसके लिए पहली बार उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर एक्ट लाया गया था और जिसने भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार जेल रहते हुए चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बनाया। गोरखपुर विश्वविद्यालय से राजनीति की शुरुआत की और देखते ही देखते पूर्वांचल की राजनीति के सबसे असरदार चेहरों में शुमार हो गए, तिवारी जी ने जब सियासत में कदम रखा, तब ‘क्राइम कुंडली’ वाले सिर्फ नेताओं के इशारे पर चलते थे।
Hari Shankar Tiwari का राजनैतिक मॉडल
लेकिन उन्होंने वो लकीर खींची जिसने सबकुछ बदल दिया, हरिशंकर तिवारी ने समझा अगर हमें सत्ता की चाबी चाहिए, तो खुद मैदान में उतरना होगा और यहीं से बना उनका ‘राजनैतिक मॉडल’ 70 के दशक में पूरे गोरखपुर की राजनीति के केंद्र में सिर्फ एक जाति ठाकुरों का वर्चस्व था, इसी दौर में ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हरिशंकर तिवारी भी गोरखपुर में मौजूद थे, जो किराए पर कमरा लेकर रहते थे। ठाकुरों के विरोधी ब्राह्मणों को लामबंद कर वो उनकी राजनीति कर रहे थे, ठेके-पट्टे से लेकर आपसी लड़ाई-झगड़े भी सुलझाने लगे थे।
यहीं से गोरखपुर में शुरू हो गई ब्राह्मण बनाम ठाकुर की लड़ाई, जिसने गैंगवॉर का रूप धारण कर लिया। ब्राह्मणों की ओर से अकेले हरिशंकर तिवारी ने मोर्चा संभाल रखा था तो ठाकुरों की ओर से रवींद्र सिंह को एक और शख्स वीरेंद्र शाही का साथ मिल गया था। हरिशंकर तिवारी किराये का कमरा छोड़कर बड़े घर में रहने लगे थे, क्योंकि दरबार सजाने के लिए बड़ी जगह चाहिए थी। उनके घर को हाता कहा जाता था, आज भी कहा जाता है। वहीं, वीरेंद्र शाही के घर को शक्ति सदन कहा जाता था।

दोनों की लड़ाई शक्ति सदन बनाम हाता की हो गई और इसका अखाड़ा गोरखपुर का रेलवे बना, क्योंकि दोनों को पैसे चाहिए थे। ये पैसे रेलवे के टेंडर से मिलने थे, जिसके लिए दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। दोनों पर मुकदमे दर्ज हुए। फिर हरिशंकर तिवारी को मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने रासुका के तहत जेल में डलवा दिया, लेकिन हरिशंकर तिवारी नहीं रुके। 1985 में जेल से ही निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा, उन्होंने कांग्रेस नेता मार्कंडेय चंद को 22 हजार वोटों से हरा दिया।
हरिशंकर तिवारी अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन पूर्वांचल की राजनीति में उनका असर आज भी महसूस किया जा सकता है, हरिशंकर तिवारी सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स है आज भी, जब पूर्वांचल की राजनीति को समझना हो, तो तिवारी जी की कहानी ज़रूर सुननी पड़ती है।